हमारी सैर
भारत में अनेक ऐतिहासिक स्थल हैं । गर्मी की छुट्टी में इस बार हमने किसी ऐतिहासिक स्थल की सैर का कार्यक्रम बनाया । हमारे राज्य में साँची ऐसा ही एक प्रसिद्ध स्थल है । साँची मध्य रेलवे के बीना व भोपाल जंक्शन के बीच का रेलवे स्टेशन है । रेल द्वारा भोपाल होकर मैं अपने माता-पिता के साथ साँची पहुँचा ।
अध्यात्म, कला और इतिहास में रुचि रखने वाले लोगों को साँची हमेशा आमंत्रित करती रही है । महात्मा बुद्ध के अनुयायी सम्राट अशोक ने जिन शांति स्थलों का निर्माण और विकास किया था, साँची उनमें से विश्व क्षितिज पर सबसे ऊपर है । ऊपर पहाड़ी पर बने स्तुप तत्कालीन समय की कलात्मकता, उन्नत शिल्प और शांति के जीवंत उदाहरण हैं ।
सुबह करीब 9 बजे जब हम साँची पहुँचे तो स्तूपों की चढ़ाई के साथ ही अनुभव हुआ कि शांति अगर कहीं बसती है तो इस छोटी सी बस्ती में । गुलाबी धूप, खुशनुमा मौसम और आस-पास की हरियाली देख कर लगा कि महात्मा बुद्ध के संदेशों को प्रसारित करने कै लिए सम्राट अशोक का इस जगह का चुनाव बहुत उपयुक्त था ।
स्तूपों पर चढाई से पूर्व हमें नीचे टिकट लेना पड़ा । संग्रहालय जाने के लिए अतिरिक्त रकम देनी पड़ी । साँची में हर स्थल में इसका पूरा ऐतिहासिक विवरण बोर्ड पर अंकित है इसलिए गाइड की आवश्यकता नहीं हुई । स्तूपों पर चढ़ाई से पूर्व हमने पुरातत्व विभाग का संग्रहालय देखा । फिर सीढ़ियों की चढ़ाई के बाद हम ऊपर पहुँचे । पत्थर के भव्य द्वार पर तीनमुखी शेरों वाला चिह्न जिसे ‘ लायन केपिटल ‘ कहते हैं, यहाँ की कथा कहता प्रतीत हुआ ।
पत्थरों का कलात्मक निर्माण, वास्तुकला और शिल्पकला की दृष्टि से साँची का स्तूप बहुत अनुपम है । इसके चारों तरफ घूमकर हमने देखा तो पाया कि इसके भीतर एक आधा स्तुप और मौजूद है । इस स्तुप को नक्काशी द्वारा चारों ओर से सजाया गया
है । स्तुप के शिलालेख पर उन सभी लोगों के नाम अंकित हैं जिन्होंने वेदिकाओं और भूतल निर्माण में सहयोग दिया था । स्तूप की एक दीवार में बनी खंभों वाली छतरी के नीचे महात्मा बुद्ध की ध्यानस्थ चार मूर्तियाँ बनी हुई हैं । पहाड़ी की तलहटी में बना दूसरा स्तुप मूलत : एक चबूतरे पर बना है । शिलालेख से ज्ञात हुआ कि उस वृत्ताकार स्कूप का निर्माण ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी के अंतिम चरण में हुआ था । इसमें अंकित फूल, पत्ती, पशु, पक्षी, नाग, मानव और किन्नरों के चित्र भी बोलते प्रतीत हुए । इन भित्तिचित्रों का बुद्ध के दर्शन और जातक कथाओं से घनिष्ठ संबंध है । हमने तीसरे स्तुप की परिक्रमा भी की और पाया कि यह दूसरे स्तुप के समान ही है ।
साँची का स्तूप देखने के बाद हम चाय-नाश्ता करने लगे । फिर हम साँची से 10 किमी दूर भोपाल रोड पर स्थित सतधारा गए । यहाँ समकालीन बौद्ध स्तुप हैं । सतधारा के स्कूप साँची के स्तृपों से कहीं ज्यादा आकर्षक हैं ।
उसके बाद हम विजय मंदिर देखने गए । उस ऐतिहासिक मंदिर में पहुंचने में हमें कई तंग गलियों से गुजरना पड़ा । इस अद्भुत और भव्य मंदिर को प्राचीन वास्तुकला का चमत्कार कहा जा सकता है । इस मंदिर को भारत का दूसरा सूर्य मंदिर भी कहते हैं । विजय मंदिर देखकर बेतवा नदी के पुल से गुजरते हुए हम उदयगिरि पहुँचे । इस ऐतिहासिक पहाड़ी को देखकर लगा जैसे पत्थरों को काट कर ही प्रतिमाएँ स्थापित की गई हैं । इस भव्य पहाड़ी के निकट ही गुलाब का एक आकर्षक उद्यान भी है ।
उदयगिरि की गुफाओं के छोटे से होटल में नाश्ता कर हम वहाँ से 2 किमी दूर ऐतिहासिक हेलियोडोरस का स्तंभ देखने पहुँचे । घुमक्कड़ चीनी यात्री ह्वेनसांग ने यहीं भारतीय संस्कृति से प्रभावित होकर हिन्दू धर्म ग्रहण किया था । यहाँ से लगभग 30 किमी दूर हम वट का एक वृक्ष देखने गए । इस वृक्ष को देख हम अचंभित रह गए । इस प्राचीन वृक्ष की सौ से भी अधिक शाखाएँ लगभग आधा किमी क्षेत्रफल में फैली हुई हैं । कहा जाता है कि यह एशिया महाद्दीप का सबसे बड़ा वट वृक्ष है । इसे निहारने के बाद हमने वापस साँची का रास्ता पकड़ा । हमने होटल में रात्रि विश्राम किया । अगले दिन विदिशा जाकर हमने ट्रेन पकड़ी ।
ऐतिहासिक स्थल की इस सैर से हमें अनेक प्रकार की जानकारियाँ प्राप्त हुईं । यहाँ आकर लोग शांति की भाषा सुन और समझ पाते हैं । मानव को मात्र मानव समझने का संदेश देती है साँची ।
अध्यात्म, कला और इतिहास में रुचि रखने वाले लोगों को साँची हमेशा आमंत्रित करती रही है । महात्मा बुद्ध के अनुयायी सम्राट अशोक ने जिन शांति स्थलों का निर्माण और विकास किया था, साँची उनमें से विश्व क्षितिज पर सबसे ऊपर है । ऊपर पहाड़ी पर बने स्तुप तत्कालीन समय की कलात्मकता, उन्नत शिल्प और शांति के जीवंत उदाहरण हैं ।
सुबह करीब 9 बजे जब हम साँची पहुँचे तो स्तूपों की चढ़ाई के साथ ही अनुभव हुआ कि शांति अगर कहीं बसती है तो इस छोटी सी बस्ती में । गुलाबी धूप, खुशनुमा मौसम और आस-पास की हरियाली देख कर लगा कि महात्मा बुद्ध के संदेशों को प्रसारित करने कै लिए सम्राट अशोक का इस जगह का चुनाव बहुत उपयुक्त था ।
स्तूपों पर चढाई से पूर्व हमें नीचे टिकट लेना पड़ा । संग्रहालय जाने के लिए अतिरिक्त रकम देनी पड़ी । साँची में हर स्थल में इसका पूरा ऐतिहासिक विवरण बोर्ड पर अंकित है इसलिए गाइड की आवश्यकता नहीं हुई । स्तूपों पर चढ़ाई से पूर्व हमने पुरातत्व विभाग का संग्रहालय देखा । फिर सीढ़ियों की चढ़ाई के बाद हम ऊपर पहुँचे । पत्थर के भव्य द्वार पर तीनमुखी शेरों वाला चिह्न जिसे ‘ लायन केपिटल ‘ कहते हैं, यहाँ की कथा कहता प्रतीत हुआ ।
पत्थरों का कलात्मक निर्माण, वास्तुकला और शिल्पकला की दृष्टि से साँची का स्तूप बहुत अनुपम है । इसके चारों तरफ घूमकर हमने देखा तो पाया कि इसके भीतर एक आधा स्तुप और मौजूद है । इस स्तुप को नक्काशी द्वारा चारों ओर से सजाया गया
है । स्तुप के शिलालेख पर उन सभी लोगों के नाम अंकित हैं जिन्होंने वेदिकाओं और भूतल निर्माण में सहयोग दिया था । स्तूप की एक दीवार में बनी खंभों वाली छतरी के नीचे महात्मा बुद्ध की ध्यानस्थ चार मूर्तियाँ बनी हुई हैं । पहाड़ी की तलहटी में बना दूसरा स्तुप मूलत : एक चबूतरे पर बना है । शिलालेख से ज्ञात हुआ कि उस वृत्ताकार स्कूप का निर्माण ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी के अंतिम चरण में हुआ था । इसमें अंकित फूल, पत्ती, पशु, पक्षी, नाग, मानव और किन्नरों के चित्र भी बोलते प्रतीत हुए । इन भित्तिचित्रों का बुद्ध के दर्शन और जातक कथाओं से घनिष्ठ संबंध है । हमने तीसरे स्तुप की परिक्रमा भी की और पाया कि यह दूसरे स्तुप के समान ही है ।
साँची का स्तूप देखने के बाद हम चाय-नाश्ता करने लगे । फिर हम साँची से 10 किमी दूर भोपाल रोड पर स्थित सतधारा गए । यहाँ समकालीन बौद्ध स्तुप हैं । सतधारा के स्कूप साँची के स्तृपों से कहीं ज्यादा आकर्षक हैं ।
उसके बाद हम विजय मंदिर देखने गए । उस ऐतिहासिक मंदिर में पहुंचने में हमें कई तंग गलियों से गुजरना पड़ा । इस अद्भुत और भव्य मंदिर को प्राचीन वास्तुकला का चमत्कार कहा जा सकता है । इस मंदिर को भारत का दूसरा सूर्य मंदिर भी कहते हैं । विजय मंदिर देखकर बेतवा नदी के पुल से गुजरते हुए हम उदयगिरि पहुँचे । इस ऐतिहासिक पहाड़ी को देखकर लगा जैसे पत्थरों को काट कर ही प्रतिमाएँ स्थापित की गई हैं । इस भव्य पहाड़ी के निकट ही गुलाब का एक आकर्षक उद्यान भी है ।
उदयगिरि की गुफाओं के छोटे से होटल में नाश्ता कर हम वहाँ से 2 किमी दूर ऐतिहासिक हेलियोडोरस का स्तंभ देखने पहुँचे । घुमक्कड़ चीनी यात्री ह्वेनसांग ने यहीं भारतीय संस्कृति से प्रभावित होकर हिन्दू धर्म ग्रहण किया था । यहाँ से लगभग 30 किमी दूर हम वट का एक वृक्ष देखने गए । इस वृक्ष को देख हम अचंभित रह गए । इस प्राचीन वृक्ष की सौ से भी अधिक शाखाएँ लगभग आधा किमी क्षेत्रफल में फैली हुई हैं । कहा जाता है कि यह एशिया महाद्दीप का सबसे बड़ा वट वृक्ष है । इसे निहारने के बाद हमने वापस साँची का रास्ता पकड़ा । हमने होटल में रात्रि विश्राम किया । अगले दिन विदिशा जाकर हमने ट्रेन पकड़ी ।
ऐतिहासिक स्थल की इस सैर से हमें अनेक प्रकार की जानकारियाँ प्राप्त हुईं । यहाँ आकर लोग शांति की भाषा सुन और समझ पाते हैं । मानव को मात्र मानव समझने का संदेश देती है साँची ।
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